Friday, February 26, 2021

शांत रविदास के दोहे


 ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन,

पूजिए चरण चंडाल के जो होने गुण प्रवीण


करम बंधन में बन्ध रहियो, फल की ना तज्जियो आस

कर्म मानुष का धर्म है, सत् भाखै रविदास


मन ही पूजा मन ही धूप,

मन ही सेऊं सहज स्वरूप


रविदास जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच

नकर कूं नीच करि डारी है, ओछे करम की कीच


जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात,

रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात

Thursday, February 25, 2021

ईश्वर नहीं है और ईश्वर बिलकुल नहीं है

 पेरियार की मूर्तियों के नीचे उनका ये बात भी लिखी रहती थी- 'ईश्वर नहीं है और ईश्वर बिलकुल नहीं है, जिस ने ईश्वर को रचा वह बेवकूफ है, जो ईश्वर का प्रचार करता है, वह दुष्ट है, साथ ही जो ईश्वर की पूजा करता है. वह बर्बर है।’ पेरियार ने धर्म और ईश्वर को लेकर भी कई अहम सवाल खड़े किए। उन्होंने तो ईश्वर को लेकर 15 सवाल उठाए थे, जो इस प्रकार हैं: -


1- क्या तुम कायर हो, जो हमेशा ही छिपे रहते हो, कभी किसी के सामने प्रकट नहीं होते?


2- क्या तुम्हें खुशामद पसंद है, जो लोगों से दिन रात पूजा-अर्चना करवाते हो?


3- क्या तुम सदेव भूखे रहते हो, जो लोगों से मिठाई, दूध, घी आदि लेते रहते हो ?


4- क्या तुम मांसाहारी हो जो लोगों से निर्बल पशुओं की बलि चढ़वाते हो?


5- क्या तुम सोने के व्यापारी हो, जो मंदिरों में लाखों टन सोना दबाए हुए हो?


6- क्या तुम व्यभिचारी हो, जो मंदिरों में देवदासियां रखते हो?


7- क्या तुम कमजोर हो, जो रोजाना होने वाले बलात्कारों को नही रोक पाते?


8- क्या तुम मूर्ख हो, जो दुनिया के देशों में गरीबी-भुखमरी होते हुए भी अरबों रुपयों का अन्न, दूध, घी,ते




ल बिना खाए ही नदी-नालों में बहा देते हो?


 9- क्या तुम बहरे हो जो बेवजह मरते हुए आदमी, बलात्कार होती हुई मासूमों की आवाज नहीं सुन पाते?


10- क्या तुम अंधे हो, जो रोज अपराध होते हुए नहीं देख पाते?


11- क्या तुम आतंकवादियों से मिले हुए हो, जो रोज धर्म के नाम पर लाखों लोगों को मरवाते रहते हो?


12- क्या तुम आतंकवादी हो, जो ये चाहते हो कि लोग तुमसे डरकर रहें?


 13- क्या तुम गूंगे हो, जो एक शब्द नहीं बोल पाते, लेकिन करोड़ों लोग तुमसे लाखों सवाल पूछते हैं?


14- क्या तुम भ्रष्टाचारी हो, जो गरीबों को कभी कुछ नहीं देते, जबकि गरीब पशुवत काम करके कमाए गए धन की पाई-पाई तुम्हारे ऊपर न्यौछावर कर देता है?


 15- क्या तुम मुर्ख हो, जो हम जैसे नास्तिकों को पैदा किया जो तुम्हे खरी-खोटी सुनाते रहते हैं और तुम्हारे अस्तित्व को ही नकारते हैं?

 

Saturday, February 20, 2021

ई. वी. रामास्वामी



आज़ादी से पहले और इसके बाद के तमिलनाडु में पेरियार का गहरा असर रहा है और राज्य के लोग उनका कहीं अधिक सम्मान करते हैं.

पेरियार के नाम से विख्यात, ई. वी. रामास्वामी का तमिलनाडु के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्यों पर असर इतना गहरा है कि से लेकर दलित आंदोलन विचारकम्युनिस्टधारा, तमिल राष्ट्रभक्त से तर्कवादियों और नारीवाद की ओर झुकाव वाले सभी उनका सम्मान करते हैं, उनका हवाला देते हैं और उन्हें मार्गदर्शक के रूप में देखते हैं.

तर्कवादी, नास्तिक और वंचितों के समर्थक होने के कारण उनकी सामाजिक और राजनीतिक ज़िंदगी ने कई उतार चढ़ाव देखे.

1919 में उन्होंने अपने राजनीतिक सफ़र की शुरुआत कट्टर गांधीवादी और कांग्रेसी के रूप में की. वो गांधी की नीतियों जैसे शराब विरोधी, खादी और छुआछूत मिटाने की ओर आकर्षित हुए.

उन्होंने अपनी पत्नी नागमणि और बहन बालाम्बल को भी राजनीति से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया. ये दो महिलाएं ताड़ी के दुकानों के विरोध में सबसे आगे थीं. ताड़ी विरोध आंदोलन के साथ एकजुटता में उन्होंने स्वेच्छा से खुद अपने नारियल के बाग नष्ट कर दिए.

उन्होंने सक्रिय रूप से असहयोग आंदोलन में भाग लिया और गिरफ़्तार किए गए. वो कांग्रेस के मद्रास प्रेसिडेंसी यूनिट के अध्यक्ष बने.


1924 में केरल में त्रावणकोर के राजा के मंदिर की ओर जाने वाले रस्ते पर दलितों के प्रवेश को प्रतिबंधित करने का विरोध हुआ था. इसका विरोध करने वाले नेताओं को राजा के आदेश से गिरफ़्तार कर लिया गया और इस लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए कोई नेतृत्व नहीं था. तब, आंदोलन के नेताओं ने इस विरोध का नेतृत्व करने के लिए पेरियार को आमंत्रित किया.

इस विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करने के लिए पेरियार ने मद्रास राज्य काँग्रेस अध्यक्ष के पद से इस्तीफ़ा दिया. वो गांधी के आदेश का उल्लंघन करते हुए केरल चले गए.

त्रावणकोर पहुंचने पर उनका राजकीय स्वागत हुआ क्योंकि वो राजा के दोस्त थे. लेकिन उन्होंने इस स्वागत को स्वीकार करने से मना कर दिया क्योंकि वो वहां राजा का विरोध करने पहुंचे थे.

उन्होंने राजा की इच्छा के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन में भाग लिया, अंततः गिरफ़्तार किए गए और महीनों के लिए जेल में बंद कर दिए गए. केरल के नेताओं के साथ भेदभाव के ख़िलाफ़ उनकी पत्नी नागमणि ने भी महिला विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया.

काँग्रेस सम्मेलन में जातीय आरक्षण के प्रस्ताव को पास करने के उनके लगातार प्रयास असफल हुए. इस बीच एक रिपोर्ट सामने आई कि चेरनमादेवी शहर में काँग्रेस पार्टी के अनुदान से चलाए जा रहे सुब्रह्मण्यम अय्यर के स्कूल में ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण छात्रों के साथ खाना परोसते समय अलग व्यवहार किया जाता है.

पेरिया ने ब्राह्मण अय्यर से सभी छात्रों से एक समान व्यवहार करने का आग्रह किया. लेकिन न तो वो अय्यर को इसके लिए राजी कर सके और न ही काँग्रेस के अनुदान को रोक पाने में कामयाब हुए. इसिलिए उन्होंने काँग्रेस छोड़ने का फैसला किया.

काँग्रेस छोड़ने पर उन्होंने आत्म-सम्मान आंदोलन शुरू किया जिसका लक्ष्य गैर-ब्राह्मणों (जिन्हें वो द्रविड़ कहते थे) में आत्म-सम्मान पैदा करना था. बाद में वो 1916 में शुरू हुई एक गैर-ब्राह्मण संगठन दक्षिण भारतीय लिबरल फेडरेशन (जस्टिस पार्टी के रूप में विख्यात) के अध्यक्ष बने.

1944 में उन्होंने अपने आत्म-सम्मान आंदोलन और जस्टिस पार्टी को मिला कर द्रविड़ कज़गम का गठन किया.

उन्होंने रूस का दौरा किया जहां वो कम्युनिस्ट आदर्शों से प्रभावित हुए और कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र का पहला तमिल अनुवाद प्रकाशित किया. महिलाओं की स्वतंत्रता को लेकर उनके विचार इतने प्रखर हैं कि उन्हें आज के मानदंडों में भी कट्टरपंथी माना जाएगा.

उन्होंने बाल विवाह के उन्मूलन, विधवा महिलाओं की दोबारा शादी के अधिकार, पार्टनर चुनने या छोड़ने, शादी को इसमें निहित पवित्रता की जगह पार्टनरशिप के रूप में लेने, इत्यादि के लिए अभियान चलाया था.

उन्होंने महिलाओं से केवल बच्चा पैदा करने के लिए शादी की जगह महिला शिक्षा अपनाने को कहा.


उनके अनुयायियों ने वैवाहिक अनुष्ठानों को चुनौती दी, शादी के निशान के रूप में थली (मंगलसूत्र) पहनने का विरोध किया. उन्हें एक महिला सम्मेलन में ही पेरियार की उपाधि दी गई.

पेरियार का मानना था कि समाज में निहित अंधविश्वास और भेदभाव की वैदिक हिंदू धर्म में अपनी जड़ें हैं, जो समाज को जाति के आधार पर विभिन्न वर्गों में बांटता है जिसमें ब्राह्मणों का स्थान सबसे ऊपर है. इसलिए, वो वैदिक धर्म के आदेश और ब्राह्मण वर्चस्व को तोड़ना चाहते थे. एक कट्टर नास्तिक के रूप में उन्होंने भगवान के अस्तित्व की धारणा के विरोध में प्रचार किया.


वो दक्षिण भारतीय राज्यों के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के ख़िलाफ़ थे. उन्होंने दक्षिण भारत राज्यों की एक अलग द्रविड़नाडू (द्रविड़ देश) की मांग की थी. लेकिन दक्षिण के अन्य राज्य उनके विचारों से सहमत नहीं हुए. वो वंचित वर्गों के आरक्षण के अगुवा थे और 1937 में उन्होंने तमिल भाषी लोगों पर हिंदी थोपने का विरोध किया था.

पेरियार ने समूचे तमिलनाडु का दौरा किया और कई सभाओं में लोगों को संबोधित किया. अपने अधिकांश भाषणों में वो बोला करते थे, "कुछ भी सिर्फ़ इसलिए स्वीकार नहीं करो कि मैंने कहा है. इस पर विचार करो. अगर तुम समझते हो कि इसे तुम स्वीकार सकते हो तभी इसे स्वीकार करो, अन्यथा इसे छोड़ दो."

नास्तिक और ब्राह्मण विरोधी राजनीति के बावजूद अपने दोस्त और स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल राजगोपालाचारी से उनके व्यक्तिगत संबंध अच्छे थे.

उनकी पहचान तर्कवाद, समतावाद, आत्म-सम्मान और अनुष्ठानों का विरोधी, धर्म और भगवान की उपेक्षा करने वाले, जाति और पितृसत्ता के विध्वंसक के रूप में है.

दक्षिणपंथी उनकी आलोचना उस व्यक्ति के रूप में करते हैं जिन्होंने उनकी धार्मिक भावनाओं, परंपराओं को अपमानित किया.


दोस्तो आप रामास्वामी के बारे मई किया सोचते हैं हमे कमेंट करके जरूर बताएं
धन्यवाद।🙏🏾🙏🏾

Friday, February 19, 2021

Dr. Bhimrao Ambedkar and Bhagat Singh


 

एक शूद्र समुदाय में पैदा हुए शहीदेआजम भगत सिंह सामाजिक समता के पैरोकार भी थे। उनकी गणना न केवल भारत के, बल्कि विश्व स्तर के क्रांतिकारियों में की जाती है। ज्योदार्नो ब्रुनो, जोन ऑफ आर्क व सुकरात जैसे विश्व स्तर के शहादत में उनका नाम शुमार है। महज 23 की उम्र में हंसते-हंसते सूली पर चढ़ जाना, कुर्बानी की सर्वोच्च अवस्था है। समाजवाद, क्रांति, भारत की आजादी, मजदूर आंदोलन, धर्म-ईश्वर आदि विषयों पर कम उम्र में ही उनका चिंतन व विचार सर्वोच्च कुर्बानी पर मानो सोने पर सुहागा लगता है। वे सिख थे, लेकिन उनका लेख “अछूत समस्या” (जून 1928) वर्ण व्यवस्था के खिलाफ क्रांतिकारी विचारों का प्रमाण है। यह तब लिखा गया था जब 25 दिसंबर 1927 को बाबासाहब मनुस्मृति का दहन कर पृथक निर्वाचन की मांग उठा चुके थे। वहीं जातिगत पाखंड का पर्दाफाश करने वाली मदर इंडिया नामक किताब से 1927 में लेखिका कैथरीन मेयो ने भूचाल पैदा कर दिया था।

भगत सिंह को जब पहली बार 29 मई से 4 जुलाई 1927 के दौरान पुलिस ने गिरफ्तार किया तो उन्होंने लाहौर पुलिस स्टेशन में सवालों का जवाब देते हुए बंबई काउंसिल में 1926 को नूर मोहम्मद द्वारा दिए गए भाषण का हवाला देते हुए कहा था कि, “जब तक तुम एक इंसान को पानी पीने देने से भी इंकार करते हो, जब तुम उन्हें स्कूल में भी पढ़ने नहीं देते तो तुम्हें क्या अधिकार है कि अपने लिए अधिक अधिकारों की मांग करो? जब तुम एक इंसान को समान अधिकार देने से भी इंकार करते हो, तो तुम अधिक राजनीतिक अधिकार मांगने के कैसे अधिकारी बन गए? जब तुम उन्हें इस तरह पशुओं से भी गया-बीता समझोगे तो वह जरूर ही दूसरे धर्मों में शामिल हो जाएंगे, जिनमें उन्हें अधिक अधिकार मिलेंगे, जहां उनसे इंसानों जैसा व्यवहार किया जाएगा। फिर यह कहना कि देखो जी, ईसाई और मुसलमान हिन्दू कौम को नुकसान पहुंचा रहे हैं, व्यर्थ होगा।”


आज जब झूठ के चादर में लपेटकर विकास का दिखावा किया जा रहा है, ऐसे में भगत सिंह का कहा ध्यान में लेना होगा। “लोगों को मानों आवश्यक कार्यों के प्रति घृणा पैदा हो गई। हमने जुलाहे को भी दुत्कारा। आज कपड़ा बुनने वाले भी अछूत समझे जाते है। कहार को भी अछूत समझा जाता है। यह गड़बड़ी विकास की प्रक्रिया में रुकावटें पैदा करती है।” सामाजिक न्याय के बिना विकास का रास्ता आसान नहीं। भगत सिंह ने अछूतों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग का समर्थन किया था। 23 मार्च 1931 को भगत सिंह अपने साथियों के साथ फांसी पर चढ़ा दिए गए। यदि वे जीवित रहते तो 1932 में पूना पैक्ट में वे अंबेडकर का समर्थन करते। भगत सिंह ने लिखा है, “अछूतों को उनके अलग अधिकार उन्हें दे दो। कौंसिलों और असेम्बलियों का कर्तव्य है कि वे स्कूल-काॅलेज, कुएं तथा सड़क के उपयोग की पूरी स्वतंत्रता उन्हें दिलाएं। जुबानी तौर पर नहीं, वरन साथ ले जाकर उन्हें कुओं पर चढ़ाएं। उनके बच्चों को स्कूलों में प्रवेश दिलाएं। उनके अपने जनप्रतिनिधि हों, वे अपने लिए अधिक अधिकार मांगे।”


सामाजिक समता की स्थापना के लिए अछूतों को चुनौती देते हुए भगत सिंह कहते है कि, “अछूत कहलाने वाले असली जनसेवकों तथा भाइयों उठो! अपना इतिहास देखो। गुरु गोविंद सिंह की फौज के असली शक्ति तुम्हीं थे। शिवाजी तुम्हारे भरोसे पर ही सब कुछ कर सकें, जिस कारण उनका नाम आज भी जिंदा है। तुम्हारी कुर्बानियां स्वर्णाक्षरों में लिखी हुई है। तुम पर इतना जुल्म हो रहा है, असल में स्वयं कोशिशें किए बिना कुछ भी न मिल सकेगा। तुम असली सर्वहारा हो, संगठनबद्ध हो जाओ। सामाजिक आंदोलन से क्रांति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो।


सोशल मीडिया पर अक्सर सवाल पूछा जाता है कि अंबेडकर वकील थे तो भगत सिंह का केस क्यों नहीं लड़ा ? यह सवाल व्यंग, नफरत या आक्रोश अथवा जिज्ञासावश में पूछा जा सकता है। सवाल प्रथम दृष्टया उचित लगता है, परंतु अक्सर इसका मकसद दुष्प्रचार होता है। इसका सटिक जवाब जानने से पहले हमें हालातों को जानना होगा। 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फांसी दी गई थी। यह वह दौर था जब शूद्र-अतिशूद्र या यूं कहें कि अंबेडकर जब स्कूल जाते थे तो उन्हें स्कूल के बाहर दरवाजे के पास बैठकर पढ़ाई करना पड़ता था। चूंकि भगत सिंह सिख थे तो उन्हें यह दंश झेलना नहीं पड़ा। शिक्षित होकर अंबेडकर जब नौकरी करने बड़ोदा गए तो उन्हें किराये पर होटल, धर्मशालाएं, कमरा तक नहीं मिला। जब वे सिडनम कालेज में प्रोफेसर बने तो बच्चे उनसे पढ़ने के लिए राजी नहीं हुए। ऐसे में जून 1923 से अंबेडकर ने वकालत का काम शुरू किया। उन्हें कई बार काउंसिल में भी बैठने के लिए जगह नहीं दी गई। अस्पृश्ता के चलते अंबेडकर को केस नहीं मिल पाते थे। एक गैर ब्राह्मण अपना केस हार जाने के बाद अंबेडकर के पास आए तो उनके केस की जीत ने उन्हें ख्याति दी। लेकिन वकालत अंबेडकर की रोजी-रोटी नहीं थी। जातिवाद के कारण केस नहीं मिलने पर उन्होंने बाटली बॉयज अकाउंटेंसी में लेक्चरर का काम शुरू कर दिया।


यह वह दौर था जहां किसी अछूत के छूने भर से हिन्दुओं का धर्म भ्रष्ट हो जाता था। इस दौर में आर्थिक जद्दोजहद के बीच जब कोई केस देने के लिए तैयार न हो, वहां भगत सिंह का केस अंबेडकर द्वारा न लड़ने का बेतुका तर्क पेश करना महज मूर्खता है। वैसे भी भगत सिंह का केस लाहौर में चल रहा था। जबकि अंबेडकर मुंबई में रहा करते थे। और भगत सिंह के केस की पैरवी जाने माने वकील आसिफ अली कर रहे थे। वकालत के क्षेत्र में उनका दबदबा था, ऐसे में आसिफ अली को हटाकर अंबेडकर को केस देने की कल्पना भी कोई कर नहीं सकता था।

भगत सिंह के खिलाफ जहां सुप्रसिद्ध वकील आसिफ अली पैरवी कर रहे थे। वहीं अंग्रेजों की तरफ से पैरवी करने वाले ब्राह्मण वकील का नाम था सूर्य नारायण शर्मा। यह वही शर्मा है जो आरएसएस के संस्थापक गोलवलकर के बहुत अच्छे मित्र थे। याद रहे कि अंबेडकर ने 150 वर्षों की अंग्रेजों की राजनीतिक गुलामी के मुकाबले में ढाई हजार वर्ष से भी अधिक की सामाजिक गुलामी को नष्ट करने के लिए अपना जीवन न्योछावर कर दिया। ऐसे में आजादी की लड़ाई को लेकर जहां क्रांतिकारियों का नाम गर्व से लिया जाता है, वहीं सामाजिक आजादी के लिए सर्वश्रेष्ठ स्थान पर अंबेडकर का नाम अभिमान के साथ लिया जाता है।


जिस समय संपूर्ण देश में एकमात्र अछूत वकील के तौर पर अंबेडकर की पहचान थी, तब भी उन्हें केस नहीं मिल पाए। आर्थिक तंगी के चलते प्रोफेसर की नौकरी करनी पड़ी। ऐसे में भगत सिंह का केस स्वयं पहल कर, मुंबई से लाहौर जाकर लड़ना किसी भी दृष्टिकोण से सुविधाजनक नजर नहीं आता। यदि केस लड़ना भी चाहे तो मशहूर वकील आसिफ अली से केस वापिस लेकर अंबेडकर को सौंपने का कोई तार्किक मुद्दा नजर नहीं आता। एक पहलू यह भी है कि जहां ब्राह्मण वकील अंग्रेजों की पैरवी कर रहे थे, वहां देश में अनेक नामचीन वकील क्या तमाशा देख रहे थे ? जबकि वर्ष 2013 में पाकिस्तान के वकील इम्तियाज कुरैशी ने भगत सिंह की केस को दोबारा खुलवाया। इसकी पैरवी अब्दुल रशीद ने की। 2014 में अब्दुल ने एफआईआर की कॉपी मांगी तो पता चला कि एफआईआर में भगत सिंह का नाम ही नहीं है। उन्हें केवल रजिस्टर के आधार पर फांसी दे दी गई।

अंबेडकर की निष्ठा व कार्य को लेकर समय-समय पर मनुवादियों द्वारा सवाल उठाया जाना एक आम बात है। लेकिन हमें उतनी ही सजगता से सभी तरह के आक्षेप व आरोपों का प्रतिउत्तर देते आना चाहिए। इसके लिए लगातार उन सवालों का पीछा करते हुए उसकी गहराई में जाने का विवेक निर्माण किया जाना चाहिए। सवाल भले ही बचकाने हो, लेकिन उसे पूछने वाले व्यक्ति का मकसद यदि अंबेडकर के चरित्र हनन का हो तो हमें चुप रहकर सवालों से मुंह मोड़ लेना ठीक नहीं। अंबेडकर के लिए अंग्रेजों की 150 वर्ष की गुलामी से कहीं अधिक जरूरी मुद्दा था, 2500 वर्ष की सामाजिक व वर्ण व्यवस्था से उपजी जातियवादी गुलामी को समाप्त करना। अत्यंत जरूरी लड़ाई उन्होंने लड़ी।



 अब हम क्यों चुप रहे? सोचिए! 

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धन्यवाद🙏🙏




Saturday, February 6, 2021

Chandra Gupt maurya


चंद्रगुप्त मौर्य, जिन्होंने मौर्य साम्राज्य की स्थापना की, भारत के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण शासकों में से एक थे । उन्होंने छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्यों को एकजुट करने में योगदान दिया, ताकि एक ही प्रशासन के तहत एक विशाल एकल राज्य का निर्माण किया जा सके, इसमें कलिंग, चेरा, चोल, सत्यपुत्र और पंड्या के तमिल क्षेत्रों को शामिल नहीं किया था।

20 साल की उम्र में, उनके मुख्य सलाहकार विद्वान ब्राह्मण चाणक्य के साथ मिलकर, उन्होंने मेसेडोनिया क्षेत्र को ज़ब्त कर लिया और अलेक्जेंडर के जनरल सेलेकस के पूर्वी राज्यों को अपने साम्राज्य में मिलाने के लिए उस पर क़ब्ज़ा कर लिया और अलेक्जेंडर के जनरल सेलेकस के पूर्वी राज्यों को अपने साम्राज्य में मिलाकर विजय प्राप्त की।

उनका साम्राज्य उत्तर में कश्मीर, दक्षिण में दक्कन पठार और पश्चिम में अफ़ग़ानिस्तान और बलूचिस्तान से बंगाल और असम में पूर्व तक फैला था। फिर भी, उन्होंने स्वेच्छा से अपना सिंहासन छोड़ दिया और जैन धर्म स्वीकार कर लिया और कर्नाटक से दक्षिण की तरफ चले गए।

तब उनके पोते अशोक ने 260 ईसा पूर्व में कलिंग और तमिल राज्य की अपूर्ण विजय को पूरा करने के लिए उनके कदमों का पालन किया। जबकि अशोक शुरूआती क्रूर और भयंकर राजा था, दूसरी ओर, चंद्रगुप्त, बहुत ही शांत स्वभाव के थे।


बचपन और प्रारंभिक जीवन

चंद्रगुप्त मौर्य का जन्म 340 ईसा पूर्व में पाटलीपुत्र में हुआ था, जो आज बिहार में स्थित है। उनकी पृष्ठभूमि हालांकि, अनिश्चित है। कुछ दावे कहते है कि वह नंद के वंशज थे, उनकी माँ का नाम मुरा था, जबकि अन्य यह मानते हैं कि वह मयूर टोमेर्स के मोरिया जनजाति के थे।




वह बचपन से ही एक बहादुर और समझदार नेता थे, वह, चाणक्य जो कि अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान में निपुण एक महान ब्राह्मण विद्वान थे, उनकी छत्रछाया में , तक्षशिला विश्वविद्यालय में चन्द्र गुप्त मौर्य को मार्गदर्शन किया गया, जो बाद में उनके गुरु बने।


परिग्रहण और शासन

उन्होंने चाणक्य की सहायता के साथ एक सेना की स्थापना की, और जब मौर्य साम्राज्य की स्थापना हो गई तो बाद में, वह उनके मुख्य सलाहकार और प्रधानमंत्री बन गए।

चंद्रगुप्त नंद सेना से मुकाबला करने में सक्षम थे, लड़ाइयों की एक श्रृंखला के बाद आखिरकार शहर की राजधानी पाटलीपुत्र को घेर लिया गया, नंद साम्राज्य की विजय के साथ, 20 साल की उम्र में उन्होंने उत्तर भारत में मौर्य साम्राज्य की नींव रखी। 323 ईसा पूर्व में अलेक्जेंडर की मौत के बाद, उनके साम्राज्य को उनके जनरलों ने तीन बैठकों में विभाजित कर दिया, जिसमें , मेसेडोनिया प्रदेशों के साथ, पंजाब सहित, सेलेकस आई निकेटर शामिल थे ।

चूंकि सेलेकस जब पश्चिमी सीमाओं में व्यस्त था, तब चन्द्रगुप्त को माक्रेट्स के बेटे पार्थिया और फिलिप के दो मैक्सिकन शख्सियतों पर हमला करने का मौका मिला। सेलेकस को हराने के बाद, चंद्रगुप्त ने उनके साथ एक शांति संधि पर हस्ताक्षर किए, जिसके अनुसार उन्होंने 500 युद्ध हाथियों के बदले पंजाब पर अधिकार हासिल किया।




अपने शासन काल में उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश उत्तरी हिस्सों के साथ-साथ, दक्षिण पूर्व में विंध्य रेंज और दक्कन के पठार में 300 ईसा पूर्व तक स्वतंत्र भारतीय राज्यों पर विजय प्राप्त की। हालांकि वह भारतीय उपमहाद्वीप को एकजुट करने में सफल रहे, लेकिन वह पूर्वी तट पर कलिंग (आधुनिक ओडिशा) पर कब्जा करने में विफल हो गए और दक्षिणी सिरे पर तमिल राज्य, जो अंततः उसके पोते अशोक द्वारा संभाला गया था।







मेगास्तेनीस और स्ट्रैबो के अनुसार, माना जाता है कि उन्होंने 400,000 सैनिकों की सेना की स्थापना की थी, जबकि प्लिनी के आंकड़े के अनुसार 600,000 फुट सैनिकों, 30,000 घुड़सवार और 9,000 युद्ध हाथियों की सेना थी।




प्रमुख युद्ध Major Wars

असफल प्रयासों की एक लम्बी श्रृंखला के बाद, उन्होंने 321 ईसा पूर्व में धन नंदा और सेना के सेनापति भद्रसाला की सेना को हराकर नंद वंश को समाप्त कर दिया और राजधानी पाटलिपुत्र पर विजय प्राप्त की।




अपने साम्राज्य का और अधिक विस्तार करने के लिए, उन्होंने पूर्वी फ़ांस पर अपनी तीव्र नज़रें स्थापित की और सफलतापूर्वक 305 ईसा पूर्व में इसपर हमला किया और उन्होंने हिंदू कुश, आधुनिक अफग़ानिस्तान और पाकिस्तान में बलूचिस्तान सहित क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया।




उपलब्धियां

अधिकांश भारतीय उपमहाद्वीप को जीतकर, उन्होंने भारतीय इतिहास में सबसे बड़ा साम्राज्यों को स्थापित किया, जो कि पश्चिम में मध्य एशिया से लेकर पूर्व में बर्मा और उत्तर में हिमालय दक्षिण में दक्कन पठार तक फैला हुआ है।




निजी जीवन और विरासत

उन्होंने सेलेकस की बेटी से शादी की, और हेलेनिस्टिक राज्यों के साथ अपने मैत्रीपूर्ण संबंध बनाये तथा पश्चिमी दुनिया के साथ भारत के व्यापार को बढ़ाया गया।उन्होंने अपने सिंहासन को त्याग दिया और जैन धर्म में परिवर्तित कर दिया, अंततः श्रुतकेली भद्रबाहू के अधीन मुनी बन गया, जिसके साथ उन्होंने श्रवणबेलगोला (आधुनिक कर्नाटक में) की यात्रा की, जहां उन्होंने 298 बीसी में ध्यान और उपवास किया।




वह अपने बेटे बिन्दुसारा द्वारा सफल हुए, जो बाद में उनके पोते अशोक द्वारा शासन संभाला गया, जो प्राचीन भारत के सबसे प्रभावशाली शासकों में से एक था ।


मृत्यु Death

अपने उपवास और भूख के कारण चन्द्रगुप्त मौर्य की मृत्यु 297 बीसी में हुई थी।









Wednesday, February 3, 2021

इसे पढ़ लो तो असली बुद्ध हो जाओगे

 

किसी भी अबौद्ध के लिये यह कार्य अत्यन्त कठिन है कि वह भगवान् बुद्ध के चरित्र और उनकी शिक्षाओं को एक ऐसे रूप में पेश कर सके कि उनमें संपुर्णता के साथ साथ कुछ भी असंगति न रहे। जब हम दीर्घानकाय आदि पालि ग्रन्थों के आधार पर भगवान् बुद्ध का जीवन-चरित्र लिखने का प्रयास करते हैं तो हमें वह कार्य सहज प्रतीत नहीं होता, और उनकी शिक्षाओं की सुसंगत अभिव्यक्ति तो और भी कठिन हो जाती है। यथार्थ बात है और ऐसा कहने में कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं कि संसार में जितने भी धर्मों के संस्थापक हुए है, उनमें भगवान बुद्ध की चर्या का लेखा-जोखा हमारे सामने कई ऐसी समस्यायें पैदा करता है जिनका निराकरण यदि असम्भव नहीं तो अत्यन्त कठिन अव३्य है |

क्या यह आवश्३श्यक नहीं कि इन समस्याओं का निराकरण किया जाय और बौद्ध-धम्म के समझने - समझाने के माग की निष्कण्टक किया जाय? क्या अब वह समय नहीं आ गया है कि बौद्धजन उन समस्याओं को ले, उन पर खुला विचार-विमर्श करें और उन पर जितना भी प्रकाश डाला जा सके डालने का प्रयास करें? इन समस्याओं की ही चर्चा को उत्पेरित करने के लिये मै उनका यहां उल्लेख कर रहा हूँ। पहली समस्या भगवान् बुद्ध के जीवन की प्रधान घटना प्रव्रज्या के ही सम्बन्ध में है। बुद्ध ने प्रव्रज्या क्यों ग्रहण की? परम्परागत उत्तर है कि उन्होने प्रव्रज्या इसलिये ग्रहण की क्योंकि उन्होने एक वृद्ध पुरुष, एक रोगी व्यक्ति तथा एक मुर्दे की लाश को देखा था । स्पष्ट ही यह उत्तर गले के नीचे उतरने वाला नहीं। जिस समय सिद्धार्थ (बुद्ध) ने प्रव्रज्या ग्रहण की थी उस समय उनकी आयु २९ वर्ष की थी। यदि सिद्धार्थ ने इन्ही तीन दृष्यों को देखकर प्रव्रज्या ग्रहण की तो यह कैसे हो सकता है कि २९ वर्ष की आयु तक सिद्धार्थ ने कभी किसी बूढ़े, रोगी, तथा मृत व्यक्ति को देखा ही न हो? यह जीवन की ऐसी घटनायें है जो रोज ही सैकडी हजारों घटती रहती है और सिद्धार्थ ने २९ वर्ष की आयु होने से पहले भी इन्हें देखा ही होगा । इस परम्परागत मान्यता को स्वीकार करना असम्भव है कि २९ वर्ष की आयु होने तक सिद्धार्थ ने एक बुढ़े, रोगी और मृत व्यक्ति को देखा ही नहीं था और २९ वर्ष की आयु होने पर ही प्रथम- बार देखा | यह व्याख्या तर्क की कसौटी पर कसने पर खरी उतरती प्रतीत नहीं होती | तब प्रश्न पैदा होता है कि यदि यह व्याख्या ठीक नही तो फिर इस प्रश्न का यथार्थ उत्तर क्या है? दूसरी समस्या चार आर्य-सत्यों से ही उत्पन्न होती है। प्रथम सत्य है दु:ख आर्य सत्य? तो क्या चार सत्य भगवान् बुद्ध की मूल शिक्षाओं मे समाविष्ट होते हैं ? जीवन स्वभावत: दुख है, यह सिद्धान्त जैसे बुद्ध-धम्म की जड पर ही कुठाराघात करता प्रतीत होता है। यदि जीवन ही दुख है, मरण भी दुख है, पुनरूत्पत्ति भी दुख है, तब तो सभी कुछ समाप्त है। न धम्म ही किसी आदमी को इस संसार में सुखी बना सकता है और न दर्शन ही । यदि दु:ख से मुक्ति ही नही है तो फिर धम्म भी क्या कर सकता है और बुद्ध भी किसी आदमी को दुख से मुक्ति दिलाने के लिये क्या कर सकता है क्योंकि जन्म ही स्वभावत: दु:खमय है। यह चारो आर्य-सत्य-जिनमे प्रथम आर्य-सत्य ही दु:ख-सत्य है- अबौद्धों द्वारा बौद्ध-धम्म ग्रहण किये जाने के मार्ग में बडी बाधा है। ये उनके गले आसानी से नहीं उतरते। ऐसा लगता है कि ये सत्य मनुष्य को निराशावाद के गढ़े मे ढकेल देते है। ये ‘सत्य' भगवान् बुद्ध के धम्म को एक निराशावादी धम्म के रूप में उपस्थित करते है। प्रश्न पूछा जा सकता है कि क्या ये चार आर्य-सत्य भगवान बुद्ध की मूल-शिक्षायें ही है अथवा ये बाद का भिक्षुओ का किया गया प्रक्षिप्तांश है? एक तीसरी समस्या आत्मा, कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त को लेकर है। भगवान बुद्ध ने 'आत्मा' के अस्तित्व से इनकार किया । लेकिन साथ ही कहा जाता है कि उन्होने ‘कर्मी तथा पुनर्जन्म' के सिद्धान्त का भी समर्थन किया है। प्रश्न पैदा हो सकता हैं, ‘आत्मा’ ही नहीं तो कर्म कैसा ? ‘आत्मा’ ही नहीं तो पुनर्जन्म कैसा? ये सचमुच टेढ़े प्रश्न है। भगवान् बुद्ध ने ‘कम तथा पुनर्जन्म' शब्दों का प्रयोग किन विशिष्ट अर्थों मे किया है? क्या भगवान् बुद्ध ने इन शब्दों का किन्ही ऐसे विशिष्ट अर्थों मे प्रयोग किया, जो अर्थ उन अर्थों से सर्वथा भिन्न थे, जिन अर्थों में भगवान् बुद्ध के समकालीन ब्राह्मण इन शब्दों का प्रयोग करते थे? यदि हां, तो वह अर्थ-भेद क्या था ? अथवा उन्होंने उन्हीं अथों मे इन शब्दों का प्रयोग किया जिन अथों मे ब्राह्माणजन इनका प्रयोग करते थे ? यदि हां तो क्या 'आत्मा' के अस्तित्व के अस्वीकार करने तथा ‘कर्मी और पुनर्जन्म' के सिद्धान्त को मान्य करने में भयानक असंगति नहीं है ?




आमुख 

"समय-समय पर प्रचलित और आनुवंशिक विश्वासों तथा विचारों पर पुनर्विचार करने, वर्तमान और विगत अनुभव के बीच सामजस्य स्थापित करने एवं ऐसी स्थिति तक पहुँचने के लिए जो भावना और चिंतन की माँगों को पूरा करती है और भविष्य का सामना करने के लिए स्व-विश्वास प्रदान करती है, मनुष्य अपने आपको बाध्य पाते हैं। यदि वर्तमान दिवस पर, व्यावहारिक और सैद्धांतिक दोनों के महत्व की आलोचनात्मक और वैज्ञानिक गवेषणा के विषय के रूप में धर्म ने वर्धमान ध्यान आकर्षित किया है, तो इसका श्रेय दिया जा सकता है (क) वैज्ञानिक ज्ञान और चिंतन की द्रुतगामी प्रगति, (ख) इस विषय में गहनतर बौद्धिक रूचि, (ग) विश्व के सभी भागों में धर्म को सुधारने अथवा पुननिर्मित करने, अथवा इसके स्थान पर किसी अधिक "बुद्धिवादी" और "वैज्ञानिक" या कम ‘अंधविश्वासपूर्ण चिंतन धारा को लाने की व्यापक प्रवृत्ति और (घ) उस प्रकार की अतीत की सामाजिक, राजनीतिक और अंतराष्ट्रीय घटनाओं के प्रभाव को जिन्होंने धर्म को प्रभावित भी किया है और उससे प्रभावित भी हुई हैं। जब भी नीतिपरक अथवा नैतिक मूल्य की गतिविधियों या स्थितियों पर प्रश्न उठाया जाता है, तो उसमें धर्म का महत्व संलिप्त होता है और गहराई तक आंदोलित करने वाले सभी अनुभव ‘मूल्य निरंतर' सर्वाधिक मूलभूत विचारों के पुनर्विचार को बाध्य करते हैं, चाहे वे प्रत्यक्ष रूप से धार्मिक हों अथवा नहीं | अंततोगत्वा, न्याय, मानव नियति, ईश्वर और संसार सम्बंधी समस्याएं उठती हैं और बदले में इनसे ‘धार्मिक’ तथा अन्य विचारों के पारस्परिक संबंध, सामाधरण ज्ञान की मान्यता और 'अनुभव' तथा ‘वास्तविकता' की व्यावहारिक अवधारणाओं की समस्याएं संबद्ध होती हैं .

*Namo Budha*




Jai Bhim