Friday, February 19, 2021

Dr. Bhimrao Ambedkar and Bhagat Singh


 

एक शूद्र समुदाय में पैदा हुए शहीदेआजम भगत सिंह सामाजिक समता के पैरोकार भी थे। उनकी गणना न केवल भारत के, बल्कि विश्व स्तर के क्रांतिकारियों में की जाती है। ज्योदार्नो ब्रुनो, जोन ऑफ आर्क व सुकरात जैसे विश्व स्तर के शहादत में उनका नाम शुमार है। महज 23 की उम्र में हंसते-हंसते सूली पर चढ़ जाना, कुर्बानी की सर्वोच्च अवस्था है। समाजवाद, क्रांति, भारत की आजादी, मजदूर आंदोलन, धर्म-ईश्वर आदि विषयों पर कम उम्र में ही उनका चिंतन व विचार सर्वोच्च कुर्बानी पर मानो सोने पर सुहागा लगता है। वे सिख थे, लेकिन उनका लेख “अछूत समस्या” (जून 1928) वर्ण व्यवस्था के खिलाफ क्रांतिकारी विचारों का प्रमाण है। यह तब लिखा गया था जब 25 दिसंबर 1927 को बाबासाहब मनुस्मृति का दहन कर पृथक निर्वाचन की मांग उठा चुके थे। वहीं जातिगत पाखंड का पर्दाफाश करने वाली मदर इंडिया नामक किताब से 1927 में लेखिका कैथरीन मेयो ने भूचाल पैदा कर दिया था।

भगत सिंह को जब पहली बार 29 मई से 4 जुलाई 1927 के दौरान पुलिस ने गिरफ्तार किया तो उन्होंने लाहौर पुलिस स्टेशन में सवालों का जवाब देते हुए बंबई काउंसिल में 1926 को नूर मोहम्मद द्वारा दिए गए भाषण का हवाला देते हुए कहा था कि, “जब तक तुम एक इंसान को पानी पीने देने से भी इंकार करते हो, जब तुम उन्हें स्कूल में भी पढ़ने नहीं देते तो तुम्हें क्या अधिकार है कि अपने लिए अधिक अधिकारों की मांग करो? जब तुम एक इंसान को समान अधिकार देने से भी इंकार करते हो, तो तुम अधिक राजनीतिक अधिकार मांगने के कैसे अधिकारी बन गए? जब तुम उन्हें इस तरह पशुओं से भी गया-बीता समझोगे तो वह जरूर ही दूसरे धर्मों में शामिल हो जाएंगे, जिनमें उन्हें अधिक अधिकार मिलेंगे, जहां उनसे इंसानों जैसा व्यवहार किया जाएगा। फिर यह कहना कि देखो जी, ईसाई और मुसलमान हिन्दू कौम को नुकसान पहुंचा रहे हैं, व्यर्थ होगा।”


आज जब झूठ के चादर में लपेटकर विकास का दिखावा किया जा रहा है, ऐसे में भगत सिंह का कहा ध्यान में लेना होगा। “लोगों को मानों आवश्यक कार्यों के प्रति घृणा पैदा हो गई। हमने जुलाहे को भी दुत्कारा। आज कपड़ा बुनने वाले भी अछूत समझे जाते है। कहार को भी अछूत समझा जाता है। यह गड़बड़ी विकास की प्रक्रिया में रुकावटें पैदा करती है।” सामाजिक न्याय के बिना विकास का रास्ता आसान नहीं। भगत सिंह ने अछूतों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग का समर्थन किया था। 23 मार्च 1931 को भगत सिंह अपने साथियों के साथ फांसी पर चढ़ा दिए गए। यदि वे जीवित रहते तो 1932 में पूना पैक्ट में वे अंबेडकर का समर्थन करते। भगत सिंह ने लिखा है, “अछूतों को उनके अलग अधिकार उन्हें दे दो। कौंसिलों और असेम्बलियों का कर्तव्य है कि वे स्कूल-काॅलेज, कुएं तथा सड़क के उपयोग की पूरी स्वतंत्रता उन्हें दिलाएं। जुबानी तौर पर नहीं, वरन साथ ले जाकर उन्हें कुओं पर चढ़ाएं। उनके बच्चों को स्कूलों में प्रवेश दिलाएं। उनके अपने जनप्रतिनिधि हों, वे अपने लिए अधिक अधिकार मांगे।”


सामाजिक समता की स्थापना के लिए अछूतों को चुनौती देते हुए भगत सिंह कहते है कि, “अछूत कहलाने वाले असली जनसेवकों तथा भाइयों उठो! अपना इतिहास देखो। गुरु गोविंद सिंह की फौज के असली शक्ति तुम्हीं थे। शिवाजी तुम्हारे भरोसे पर ही सब कुछ कर सकें, जिस कारण उनका नाम आज भी जिंदा है। तुम्हारी कुर्बानियां स्वर्णाक्षरों में लिखी हुई है। तुम पर इतना जुल्म हो रहा है, असल में स्वयं कोशिशें किए बिना कुछ भी न मिल सकेगा। तुम असली सर्वहारा हो, संगठनबद्ध हो जाओ। सामाजिक आंदोलन से क्रांति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो।


सोशल मीडिया पर अक्सर सवाल पूछा जाता है कि अंबेडकर वकील थे तो भगत सिंह का केस क्यों नहीं लड़ा ? यह सवाल व्यंग, नफरत या आक्रोश अथवा जिज्ञासावश में पूछा जा सकता है। सवाल प्रथम दृष्टया उचित लगता है, परंतु अक्सर इसका मकसद दुष्प्रचार होता है। इसका सटिक जवाब जानने से पहले हमें हालातों को जानना होगा। 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फांसी दी गई थी। यह वह दौर था जब शूद्र-अतिशूद्र या यूं कहें कि अंबेडकर जब स्कूल जाते थे तो उन्हें स्कूल के बाहर दरवाजे के पास बैठकर पढ़ाई करना पड़ता था। चूंकि भगत सिंह सिख थे तो उन्हें यह दंश झेलना नहीं पड़ा। शिक्षित होकर अंबेडकर जब नौकरी करने बड़ोदा गए तो उन्हें किराये पर होटल, धर्मशालाएं, कमरा तक नहीं मिला। जब वे सिडनम कालेज में प्रोफेसर बने तो बच्चे उनसे पढ़ने के लिए राजी नहीं हुए। ऐसे में जून 1923 से अंबेडकर ने वकालत का काम शुरू किया। उन्हें कई बार काउंसिल में भी बैठने के लिए जगह नहीं दी गई। अस्पृश्ता के चलते अंबेडकर को केस नहीं मिल पाते थे। एक गैर ब्राह्मण अपना केस हार जाने के बाद अंबेडकर के पास आए तो उनके केस की जीत ने उन्हें ख्याति दी। लेकिन वकालत अंबेडकर की रोजी-रोटी नहीं थी। जातिवाद के कारण केस नहीं मिलने पर उन्होंने बाटली बॉयज अकाउंटेंसी में लेक्चरर का काम शुरू कर दिया।


यह वह दौर था जहां किसी अछूत के छूने भर से हिन्दुओं का धर्म भ्रष्ट हो जाता था। इस दौर में आर्थिक जद्दोजहद के बीच जब कोई केस देने के लिए तैयार न हो, वहां भगत सिंह का केस अंबेडकर द्वारा न लड़ने का बेतुका तर्क पेश करना महज मूर्खता है। वैसे भी भगत सिंह का केस लाहौर में चल रहा था। जबकि अंबेडकर मुंबई में रहा करते थे। और भगत सिंह के केस की पैरवी जाने माने वकील आसिफ अली कर रहे थे। वकालत के क्षेत्र में उनका दबदबा था, ऐसे में आसिफ अली को हटाकर अंबेडकर को केस देने की कल्पना भी कोई कर नहीं सकता था।

भगत सिंह के खिलाफ जहां सुप्रसिद्ध वकील आसिफ अली पैरवी कर रहे थे। वहीं अंग्रेजों की तरफ से पैरवी करने वाले ब्राह्मण वकील का नाम था सूर्य नारायण शर्मा। यह वही शर्मा है जो आरएसएस के संस्थापक गोलवलकर के बहुत अच्छे मित्र थे। याद रहे कि अंबेडकर ने 150 वर्षों की अंग्रेजों की राजनीतिक गुलामी के मुकाबले में ढाई हजार वर्ष से भी अधिक की सामाजिक गुलामी को नष्ट करने के लिए अपना जीवन न्योछावर कर दिया। ऐसे में आजादी की लड़ाई को लेकर जहां क्रांतिकारियों का नाम गर्व से लिया जाता है, वहीं सामाजिक आजादी के लिए सर्वश्रेष्ठ स्थान पर अंबेडकर का नाम अभिमान के साथ लिया जाता है।


जिस समय संपूर्ण देश में एकमात्र अछूत वकील के तौर पर अंबेडकर की पहचान थी, तब भी उन्हें केस नहीं मिल पाए। आर्थिक तंगी के चलते प्रोफेसर की नौकरी करनी पड़ी। ऐसे में भगत सिंह का केस स्वयं पहल कर, मुंबई से लाहौर जाकर लड़ना किसी भी दृष्टिकोण से सुविधाजनक नजर नहीं आता। यदि केस लड़ना भी चाहे तो मशहूर वकील आसिफ अली से केस वापिस लेकर अंबेडकर को सौंपने का कोई तार्किक मुद्दा नजर नहीं आता। एक पहलू यह भी है कि जहां ब्राह्मण वकील अंग्रेजों की पैरवी कर रहे थे, वहां देश में अनेक नामचीन वकील क्या तमाशा देख रहे थे ? जबकि वर्ष 2013 में पाकिस्तान के वकील इम्तियाज कुरैशी ने भगत सिंह की केस को दोबारा खुलवाया। इसकी पैरवी अब्दुल रशीद ने की। 2014 में अब्दुल ने एफआईआर की कॉपी मांगी तो पता चला कि एफआईआर में भगत सिंह का नाम ही नहीं है। उन्हें केवल रजिस्टर के आधार पर फांसी दे दी गई।

अंबेडकर की निष्ठा व कार्य को लेकर समय-समय पर मनुवादियों द्वारा सवाल उठाया जाना एक आम बात है। लेकिन हमें उतनी ही सजगता से सभी तरह के आक्षेप व आरोपों का प्रतिउत्तर देते आना चाहिए। इसके लिए लगातार उन सवालों का पीछा करते हुए उसकी गहराई में जाने का विवेक निर्माण किया जाना चाहिए। सवाल भले ही बचकाने हो, लेकिन उसे पूछने वाले व्यक्ति का मकसद यदि अंबेडकर के चरित्र हनन का हो तो हमें चुप रहकर सवालों से मुंह मोड़ लेना ठीक नहीं। अंबेडकर के लिए अंग्रेजों की 150 वर्ष की गुलामी से कहीं अधिक जरूरी मुद्दा था, 2500 वर्ष की सामाजिक व वर्ण व्यवस्था से उपजी जातियवादी गुलामी को समाप्त करना। अत्यंत जरूरी लड़ाई उन्होंने लड़ी।



 अब हम क्यों चुप रहे? सोचिए! 

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धन्यवाद🙏🙏




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